Motivational Concept: अपने ‘विचार बदलो’ तो विश्व बदल जाएगा

Edited By Updated: 15 Nov, 2022 11:33 AM

motivational concept in hidi

कहते हैं कि मनुष्य के विचार ही मनुष्य को सुखी और दुखी बनाते हैं। अत: जिस मनुष्य के विचार उसके नियंत्रण में हैं, वह सुखी है और जिसके विचार उसके नियंत्रण में नहीं रहते, वह सदा दुखी रहता है। ऐसा व्यक्ति अक्सर अपने दुख का कारण खुद को न मानकर

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कहते हैं कि मनुष्य के विचार ही मनुष्य को सुखी और दुखी बनाते हैं। अत: जिस मनुष्य के विचार उसके नियंत्रण में हैं, वह सुखी है और जिसके विचार उसके नियंत्रण में नहीं रहते, वह सदा दुखी रहता है। ऐसा व्यक्ति अक्सर अपने दुख का कारण खुद को न मानकर किसी व्यक्ति, वस्तु या बाह्य पदार्थ को मानता है। इस प्रकार की क्रिया को आधुनिक मनोविज्ञान में ‘आरोपण की क्रिया’ कहते हैं। मनोवैज्ञानिकों के मतानुसार जिस व्यक्ति के विचार उसके अनुकूल हैं, वह सभी प्रकार के लोगों, परिस्थितियों और भाग्य को अपने अनुकूल पाता है। इसके विपरीत जिस व्यक्ति के विचार प्रतिकूल होते हैं, उसे अपने चारों ओर शत्रु ही शत्रु दिखाई पड़ते हैं। 

विचारों की इस मलिनता के परिणामस्वरूप उसके आसपास का वातावरण भी दूषित हो जाता है और मित्र भी शत्रु बन जाते हैं तथा सफलता भी विफलता में बदल  जाती है इसीलिए ऋषि-मुनि एवं विद्वानों द्वारा हमें सदैव यह सीख मिलती रही है कि ‘अपनी चिंतन की धारा बदल दो तो ङ्क्षचता का रूप मिट जाएगा’ अर्थात हम चिंतन अवश्य करें, परन्तु इस बात पर खास ध्यान दें कि वह चिंतन व्यर्थ में परिवर्तित न हो जाए। हमारे मन में विचार तरंगें निरन्तर उठती ही रहती हैं, इसीलिए उनकी उपेक्षा करना संभव नहीं क्योंकि वह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। हमारे जो कर्म आंखों से दिखाई देते हैं, वे इन अदृश्य पर अतिसमर्थ विचारों का ही दृश्य रूप हैं। 

अत: हमें पूरी तरह सतर्क रहना चाहिए कि हमारे मन-मस्तिष्क में किस प्रकार के विचार आ-जा रहे हैं, अन्यथा गंदे और निरुपयोगी विचार मन-मस्तिष्क में उठकर वैसे ही गंदे, निरुपयोगी कामों में मनुष्य को कार्यरत कर देते हैं। ऐसे विचारों को रोकने और निकाल फैंकने में प्रारम्भ में तो हमें कठिनाई अवश्य होगी, परन्तु थोड़े से ही अभ्यास से यह कार्य सरल हो जाता है। 

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आत्म-अभिमानी अवस्था में रहने से, ध्यान का अभ्यास करने से, दिनचर्या सुव्यवस्थित करने से, संग की सम्भाल करने से, दिन में बीच-बीच में कई बार ध्यान देकर स्वयं की जांच करने से, विकारों से स्वयं को बचाकर रखने से, सर्व प्रति शुभ भावना रखने से, अधिक से अधिक स्वयं को व्यस्त रखने से, बुरा न देखने, न सुनने, न बोलने और न पढऩे से, दुनिया के बाहरी वातावरण को देखते हुए भी न देखने से व्यर्थ चिन्तन से खुद को बचा सकते हैं।

हमें अपनी वाणी का उपयोग आवश्यकता अनुसार एवं प्रसंग देखकर ही करना चहिए और इसके साथ-साथ हमें व्यर्थ चिंतन को संपूर्णत: समाप्त करने के लिए शुभ संकल्पों की गति को बहुत तेज करना चाहिए। याद रखें, हमारा मन वह सेतु है जो आत्मा को या तो परमात्मा से जोड़ देता है या विकारों से। अत: यदि हम मन के विचारों पर ध्यान देकर इन्हें शुभ व समर्थ बना दें तो सहज ही व्यर्थ से मुक्ति हो जाएगी। 

हम यह न सोचें कि मुझे व्यर्थ को समाप्त करना है बल्कि यह सोचें कि मुझे सदा शुभ व श्रेष्ठ विचार मन में लाने हैं क्योंकि शुभ व श्रेष्ठ विचारों की शक्ति से व्यर्थ अपने आप ही समाप्त हो जाता है। हमारे संकल्प में ही वाणी और कर्म का बीज होता है इसीलिए जब हम संकल्पों को श्रेष्ठ व शक्तिशाली बना लेंगे तो हमारे बोल व कर्म भी अपने आप श्रेष्ठ बन जाएंगे। 

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