Edited By Jyoti,Updated: 22 Nov, 2020 06:21 PM
प्रत्येक जीव एक व्यष्टि आत्मा है। आत्मा प्रतिक्षण अपना शरीर बदलती रहती है-कभी बालक के रूप में, कभी युवा तथा कभी वृद्ध पुरुष के रूप में परंतु आत्मा वही रहती है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता।
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श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता
भीष्मद्रोणप्रमुखत: सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरु निति।।
आत्मा प्रति क्षण शरीर बदलती है
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यïति॥
तात्पर्य : प्रत्येक जीव एक व्यष्टि आत्मा है। आत्मा प्रतिक्षण अपना शरीर बदलती रहती है-कभी बालक के रूप में, कभी युवा तथा कभी वृद्ध पुरुष के रूप में परंतु आत्मा वही रहती है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता।
यह व्यष्टि आत्मा मृत्यु होने पर अंतत: एक शरीर बदल कर दूसरे शरीर में देहांतरण कर जाती है और चूंकि अगले जन्म में इसे शरीर मिलना अवश्यम्भावी है-अत: अर्जुन के लिए न तो भीष्म, न ही द्रोण के लिए शोक करने का कोई कारण था।
बल्कि उसे तो प्रसन्न होना चाहिए था कि वे अपने पुराने शरीरों को बदल कर नए शरीर ग्रहण करेंगे और इस तरह वे नई शक्ति प्राप्त करेंगे। ऐसे शरीर-परिवर्तन से जीवन में किए कर्म के अनुसार नाना प्रकार के सुखोपभोग या कष्टों का लेखा हो जाता है।
चूंकि भीष्म पितामह एवं आचार्य द्रोण साधु पुरुष थे, इसलिए अगले जन्म में उन्हें आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होंगे, नहीं तो कम से कम उन्हें स्वर्ग में भोग करने के अनुरूप शरीर तो प्राप्त होंगे, अत: दोनों ही दशाओं में शोक का कोई कारण नहीं था।
(क्रमश:)