हर एक दुःख में सहारा बनेगी 24वें तीर्थंकर महावीर की वाणी

Edited By Updated: 07 Jun, 2025 02:56 PM

24th tirthankara mahavira

24th Tirthankara Mahavira: 1868 वर्ष पूर्व ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी के दिन तीर्थंकर महावीर की दिव्य वाणी को षट्खंडागम ग्रंथ के रूप में श्रवण यानी श्रुत के आधार पर लिपिबद्ध कर भावी पीढ़ी के लिए सुरक्षित किया था। अत: उक्त दिन को ‘श्रुत पंचमी’ के नाम से...

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24th Tirthankara Mahavira: 1868 वर्ष पूर्व ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी के दिन तीर्थंकर महावीर की दिव्य वाणी को षट्खंडागम ग्रंथ के रूप में श्रवण यानी श्रुत के आधार पर लिपिबद्ध कर भावी पीढ़ी के लिए सुरक्षित किया था। अत: उक्त दिन को ‘श्रुत पंचमी’ के नाम से जिनवाणी उत्सव मनाया जाता है। इस वर्ष हाल ही में 31 मई को ‘श्रुत पंचमी’ मनाई गई। यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा में लिपिबद्ध है, अत: इस दिन को प्राकृत भाषा दिवस के रूप में भी मनाते हैं।

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तीर्थंकरों द्वारा केवल ज्ञान प्राप्ति उपरांत उनकी दिव्य ध्वनि प्रतिदिन पूर्वाह्न, मध्याह्न, अपराह्न एवं अर्धरात्रि में 4 बार छ:-छ: घड़ी पर्यंत अठारह महाभाषा और सात सौ लघुभाषा में प्रवाहित होती रहती है। समवशरण में उपस्थित सभी गति के जीव अपनी-अपनी भाषा में इसे समझ लेते हैं।

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24वें तीर्थंकर महावीर की वाणी श्रुत रूप में रही, जो अनुबंध केवल गौतम स्वामी, सुधर्म स्वामी, जम्बू स्वामी से लेकर अंतिम श्रुतकेवली भद्रभाहू स्वामी तक निरंतर प्रवाहमान होती रही।

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वर्षों तक उनकी दिव्य देशना आचार्यों, मुनियों, योग्यजनों द्वारा याददाश्त के आधार पर जनमानस में प्रचलित रही। इनके पश्चात क्षयोपशम ज्ञान की मंदता बढ़ने लगी। आचार्यों की स्मृति क्षीण होने लगी एवं अंगों एवं पूर्व ज्ञान का ह्रास होने लगा।

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भगवान महावीर के निर्वाण के 683 वर्ष व्यतीत होने पर अंगों एवं पूर्व के शेष ज्ञान के भी लुप्त होने एवं कालांतर में शास्त्रों के घटते ज्ञान से चिंतित होकर कि महावीर की श्रुत परम्परा, बुद्धि के निरंतर ह्रास के कारण केवल श्रुत (सुनकर) सीखने के आधार पर नहीं चल सकती।

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यह जानकर, आचार्य धरसेन, जो क्षीण अंग के धारी थे, ने अपनी शेष अत्यल्प आयु में, अवशेष ज्ञान को लिपिबद्ध कराने हेतु महिमा नगरी में हो रहे मुनि सम्मेलन से दो योग्य मुनियों आचार्य पुष्पदंत और आचार्य भूतबलि को उनकी योग्यता के आधार पर अपने आश्रय स्थल, गिरनार पर्वत, गुजरात में स्थित चंद्र गुफा में बुलाया एवं अपनी स्मृति में सुरक्षित संपूर्ण श्रुत ज्ञान उन्हें प्रदान किया।  परिणामत: शुरुआत में आचार्य पुष्पदंत ने प्रथम खंड एवं उनके शरीरांत होने पर शेष पांच खंड आचार्य भूतबलि ने अंकलेश्वर में पूर्ण किए एवं छ: खंडों के ‘षट्खंडागम’ ग्रंथ की रचना को पुस्तकारुढ़ किया।

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यह ग्रंथ दिगम्बर आचार्य धरसेन के आगम के मौखिक उपदेशों पर आधारित है, जिसे ताड़पत्र पर लिपिबद्ध किया गया। ईस्वी सन् 156 में जयेष्ठ शुक्ल पंचमी के दिन चतुर्विद संघ एवं देवों ने इस महान ग्रंथ की पूजा-अर्चना की एवं भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित किया गया। तभी से यह तिथि श्रुति पंचमी के नाम से विख्यात हुई।

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इस दिन रचित ‘षट्खंडागम’ (छ: भागों वाला आगम ग्रंथ) दिगम्बर सम्प्रदाय का सर्वोच्च और सबसे प्राचीन पवित्र धर्मग्रंथ है। 

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