संस्कारी बहू ही कर सकती है ये काम, जानें कैसी पुत्रवधू हैं आप

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 11 Dec, 2021 02:32 PM

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एक पिता-पुत्र व्यापार-धंधा करते थे। पुत्र को पिता के साथ कार्य करते हुए वर्षों बीत गए। फिर भी पुत्र को पिता न तो व्यापार की स्वतंत्रता देते थे और न ही तिजोरी की चाबी। पुत्र के मन में सदैव यह बात खटकती।

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Inspirational Story: एक पिता-पुत्र व्यापार-धंधा करते थे। पुत्र को पिता के साथ कार्य करते हुए वर्षों बीत गए। फिर भी पुत्र को पिता न तो व्यापार की स्वतंत्रता देते थे और न ही तिजोरी की चाबी। पुत्र के मन में सदैव यह बात खटकती। वह सोचता, यदि पिता जी का यही व्यवहार रहा तो मुझे व्यापार में कुछ नया करने का कोई अवसर नहीं मिलेगा। पुत्र के मन में छुपा क्षोभ एक दिन फूट पड़ा। दोनों के बीच झगड़ा हुआ और सम्पदा का बंटवारा हो गया। पिता-पुत्र अलग हो गए। पुत्र अपनी पत्नी, बच्चों के साथ रहने लगा। पिता अकेले थे। उनकी पत्नी का देहांत हो चुका था। उन्होंने किसी दूसरे को सेवा के लिए भी नहीं रखा क्योंकि उन्हें किसी पर विश्वास नहीं था। वह स्वयं ही रूखा-सूखा भोजन बनाकर खा लेते या कभी चने आदि खाकर ही रह जाते तो कभी भूखे पेट ही सो जाते थे। उनकी पुत्रवधू बचपन से ही सत्संगी थी। जब उसे अपने ससुर की ऐसी हालत का पता चला तो उसे बड़ा दुख हुआ, आत्मग्लानि भी हुई। उसने अपने पति को बहुत मनाने का प्रयास किया परन्तु वह न माने। 

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पिता के प्रति पुत्र के मन में सद्भाव नहीं था। अब पुत्रवधू ने एक विचार अपने मन में दृढ़ कर उसे कार्यान्वित किया। वह पहले पति व पुत्र को भोजन कराकर क्रमश: दुकान और विद्यालय भेज देती, बाद में स्वयं ससुर के घर जाती। भोजन बनाकर उन्हें खिलाती और रात्रि के लिए भी भोजन बनाकर रख देती। कुछ दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। जब पति को पता चला तो उसने पत्नी को ऐसा करने से रोकते हुए कहा, ‘‘ऐसा क्यों करती हो? बीमार पड़ जाओगी। तुम्हारा शरीर इतना परिश्रम नहीं सह पाएगा।’’ 

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पत्नी बोली, ‘‘मेरे आदरणीय ससुर जी भूखे रहें, तकलीफ पाएं और हम लोग आराम से खाएं-पिएं, यह मैं नहीं देख सकती। मेरा धर्म है बड़ों की सेवा करना, इसके बिना मुझे संतोष नहीं होता। उनमें भी तो मेरे भगवान का वास है। मैं उन्हें खिलाए बिना नहीं खा सकती। भोजन के समय उनकी याद आने पर मेरी आंखों में आंसू आ जाते हैं। उन्होंने ही तो आपको पाल-पोसकर बड़ा किया और काबिल बनाया है, तभी आप मुझे पति के रूप में मिले हैं। आपके मन में कृतज्ञता का भाव नहीं है तो क्या हुआ, मैं उनके प्रति कैसे कृतघ्न हो सकती हूं।’’

पत्नी के सुंदर संस्कारों तथा सद्भाव ने पति की बुद्धि पलट दी। उन्होंने जाकर अपने पिता के चरण छुए, क्षमा मांगी और उन्हें घर ले आए। पति-पत्नी दोनों मिलकर पिता की सेवा करने लगे। 

पिता ने व्यापार का सारा भार पुत्र पर छोड़ दिया। परिवार के किसी भी व्यक्ति में सच्चा सद्भाव है, मानवीय संवेदनाएं हैं तो वह सबके मन को जोड़ सकता है, घर-परिवार में सुख-शांति बनी रह सकती है।

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