Edited By Sarita Thapa,Updated: 07 Sep, 2025 02:03 PM

Motivational Story: साधना का मार्ग बहुत विकट है। इस पर कदम बढ़ाने से पहले बड़ी सावधानी से पूर्व तैयारी करनी चाहिए। साधना पथ आदि से अंत तक बड़ा कठोर तथा दुर्गम है। साधक को प्रत्येक चरण सोच-विचार कर रखना होता है।
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
Motivational Story: साधना का मार्ग बहुत विकट है। इस पर कदम बढ़ाने से पहले बड़ी सावधानी से पूर्व तैयारी करनी चाहिए। साधना पथ आदि से अंत तक बड़ा कठोर तथा दुर्गम है। साधक को प्रत्येक चरण सोच-विचार कर रखना होता है। सावधानी से बढ़ने पर ही अपनी मंजिल तक पहुंचना सम्भव है। प्रत्येक कार्य करने से पहले उसके साधनों तथा उपायों को गहराई से चिंतन कर आचरण में लाना पड़ता है।
साध्य के अनुरूप साधनों को सम्यक रीति से इस्तेमाल में लाना चाहिए। साधना का लक्ष्य विषमता से समता की ओर अग्रसर होना है, जो साधक की आंतरिक शक्ति पर निर्भर है। अन्त:शक्ति अन्तरंग में रहती है, जिस कारण अंतःकरण की शुद्धि तथा पवित्रता साधक का महत्वपूर्ण कर्तव्य है।
प्रत्येक किसान बीज बोने से पहले अपनी जमीन में हल चलाकर खाद डालता है, फालतू घास-फूस, कंकर-पत्थर आदि हटाता है। तत्पश्चात वह उसमें बीज बोता है। ऊसर, कंकरीली-पथरीली भूमि में बीज डालने से फसल पैदा नहीं हो सकती। हृदय भी क्षेत्र है, जिसमें धर्म रूपी बीज बोने से पहले इसकी शुद्धि करनी होती है। जब तक हृदय में राग-द्वेष, विषय-विकार रूपी कंकर-पत्थर पड़े रहेंगे, तब तक हृदय का क्षेत्र शुद्ध नहीं होगा, तब तक उसमें धर्म रूपी बीज अंकुरित नहीं हो सकता।
साधक को जिस पथ पर कदम बढ़ाना है, जिस मंजिल की ओर अग्रसर होना है, उस पर पहला ही कदम सावधानीपूर्वक रखना चाहिए। इससे अगले कदम अपने आप संभल जाते हैं। पहला कदम गड्ढे में गिरने पर बाकी कदमों का संभलना कठिन हो जाता है।

श्रद्धा शील व्यक्ति संत-महात्माओं का समागम करता है, श्रद्धा से उनके चरणों में नत होता है। महापुरुषों तथा सामान्य व्यक्तियों में बाहरी दृष्टि से अधिक अंतर नहीं होता। शरीर, इन्द्रियां, जन्मभूमि और जीवन निर्माण के साधन समान रूप से प्राप्त होने पर भी अंतःकरण की शुद्धि की अपेक्षा से महान अंतर रहता है।
मानस को मांजकर जो कुछ भी पाया जाता है, अन्तरंग अशुद्ध होने के कारण उसे प्राप्त करना संभव नहीं होता। हृदय पवित्र तथा शुद्ध होने पर ज्ञानदाता गुरुओं और संत विभूतियों से जो कुछ भी प्राप्त किया जाता है, वह हृदय में रम जाता है, परन्तु हृदय की शुद्धि किए बिना महापुरुषों के जीवन चरित पढ़कर, वर्षों तक उनके उपदेशों को सुनकर तथा अनवरत उनका समागम करने पर भी कुछ ग्रहण नहीं हो पाता।
गुणग्राहकता, श्रद्धा तथा विश्वास की कमी के कारण कुछ भी हृदय में नहीं टिकता और किसी तरह टिक भी जाए तो भी वह शुद्ध नहीं होता। किसी भी पदार्थ को सुपात्र में डालने पर वह सुस्वाद रहता है, परंतु कुपात्र में पड़ते ही उसका स्वाद बिगड़ जाता है। संत-महात्मा के पास आगंतुक अपना अलग-अलग हृदय और भावनाएं लेकर आते हैं। शुद्ध हृदयी और गुणग्राही कुछ न कुछ लेकर ही आते हैं और उनका लाया ज्ञान पवित्र तथा मधुर बना रहता है।
