Edited By Niyati Bhandari,Updated: 29 Nov, 2023 08:04 AM
श्री कृष्ण कहते हैं कि योगी केवल इंद्रियों, शरीर, मन और बुद्धि द्वारा आत्मशुद्धि के लिए कर्म करते हैं (5.11)। यह व्याख्या की जाती है कि भले ही कोई वर्तमान क्षण में आसक्ति को छोड़ देता है, उसके पिछले कर्म-बंधन पर ध्यान देने की आवश्यकता होती है
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Srimad Bhagavad Gita: श्री कृष्ण कहते हैं कि योगी केवल इंद्रियों, शरीर, मन और बुद्धि द्वारा आत्मशुद्धि के लिए कर्म करते हैं (5.11)। यह व्याख्या की जाती है कि भले ही कोई वर्तमान क्षण में आसक्ति को छोड़ देता है, उसके पिछले कर्म-बंधन पर ध्यान देने की आवश्यकता होती है जिसकी वजह से वह कर्म करता रहता है।
इसे देखने का एक और तरीका यह है कि एक बार अनासक्त होने के बाद, उसके पास भौतिक या प्रकट दुनिया में प्राप्त करने के लिए कुछ भी नहीं बचा और सभी कार्यों से आंतरिक आत्मा की शुद्धि होती है। श्री कृष्ण आगे कहते हैं कि ‘युक्त’ कर्म के फल को त्यागकर, शाश्वत शांति प्राप्त करता है, जबकि ‘अयुक्त’, इच्छा से प्रेरित और फल से जुड़ा, बाध्य रहता है (5.12)।
गीता के आधारभूत स्तम्भों में से एक यह है कि कर्म पर हमारा अधिकार है, लेकिन कर्मफल पर नहीं। कर्मफल को त्यागने का अर्थ है कि किसी विशिष्ट परिणाम के लिए कोई वरीयता नहीं है क्योंकि किसी भी परिणाम को समभाव के साथ स्वीकार करने के लिए तैयार हम हैं, चाहे वह कितना ही अद्भुत हो।
श्री कृष्ण ने पहले (2.66) कहा था कि ‘अयुक्त’ में बुद्धि और भाव दोनों का अभाव है और परिणामस्वरूप, उसे न तो शांति मिलेगी और न ही आनंद।
श्री कृष्ण आगे कहते हैं कि अंत:करण जिसके वश में है, ऐसा सांख्ययोग का आचरण करने वाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले शरीर रूपी घर में सब कर्मों को मन से त्याग कर आनंदपूर्वक परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है। (5.13)
इसकी कुंजी यह है मानसिक रूप से सभी कार्यों का त्याग करना। भले ही वे कार्य या कर्म होते रहते हैं, फिर चाहे हम उन्हें कर रहे हों या नहीं और हम केवल उनका हिस्सा बन जाते हैं। जैसे कि खाना खाने के बाद, पाचन के लिए सैंकड़ों क्रियाएं होती हैं, परंतु हमें उनके बारे में कोई जानकारी नहीं होती। वास्तव में, पाचन खुद-ब-खुद होता है जबकि हम मन के स्तर पर उस क्रिया में भाग नहीं लेते।