Buddha purnima: बुद्ध की शिक्षाएं समेटे अशोक स्तम्भ दे रहे ‘बुद्धम शरणम गच्छामि’ का संदेश

Edited By Updated: 28 Apr, 2025 08:25 AM

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Buddha Jayanti 2025: कलिंग युद्ध को समाप्त हुए 4 वर्ष बीत चुके थे। युद्ध में हुए रक्तपात से अशोक का मन विचलित हो उठा था। रणभूमि में मारे गए एक लाख से अधिक सैनिकों के शव मगध नरेश से बार-बार सवाल कर रहे थे- चंड अशोक ! इस जीत को कहां रखोगे ? मगध नरेश...

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Buddha Jayanti 2025: कलिंग युद्ध को समाप्त हुए 4 वर्ष बीत चुके थे। युद्ध में हुए रक्तपात से अशोक का मन विचलित हो उठा था। रणभूमि में मारे गए एक लाख से अधिक सैनिकों के शव मगध नरेश से बार-बार सवाल कर रहे थे- चंड अशोक ! इस जीत को कहां रखोगे ? मगध नरेश के अहंकार का घड़ा लबालब भर चुका था। वह उठना चाहते थे लेकिन उनके पांव साथ नहीं दे रहे थे। अशोक का मन बार-बार उन सवालों के उत्तर तलाश रहा था, जो युद्ध भूमि में पड़े धड़ से अलग हुए सिर उनसे पूछ रहे थे।

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कुछ दिन बाद अशोक ने देखा दो पुरुष मुंडे सर, पांव तक लंबा चोगा पहने भिक्षाटन कर रहे हैं। उन भिक्षुओं ने कहा- हे सम्राट ! तुम्हारे मन की तपिश को शांत करने का मार्ग है- ‘बुद्धम् शरणम् गच्छामि, धम्मम् शरणम् गछामि, संघम् शरणम् गछामि’ अर्थात बुद्ध की शरण में जाओ, धम्म की शरण में जाओ। लेकिन बुद्ध की शरण में कैसे जाया जा सकता है, ऐसा करना तो कठिन है। अशोक शरण में कैसे जाएंगे, वह तो महानायक हैं। वह शरणागत कैसे हुए होंगे...। वह तो बस उन भिक्षुओं (निग्रोध और मौग्गलिपुत्ततिस्स, जिनका उल्लेख सिंहली जनश्रुतियों ‘दीवंश’ और ‘महावंश’ में मिलता है) के पीछे-पीछे चले होंगे।

एकबारगी अशोक थम-सा गया। मन में उठ रही सारी तपन शांत हो गई। अब अशोक बुद्ध की शरण में आ चुके थे, धम्म की शरण में आ चुके थे। यानी चंड अशोक, कलिंग विजेता सम्राट अशोक बुद्ध का शरणागत हो चुका था। इतिहास के पन्ने कहते हैं, अशोक और बुद्ध का काल समान नहीं था। बुद्ध तो बिंबसार के काल के हैं। भले ही बुद्ध और अशोक में पीढ़ियों का अंतर रहा हो, लेकिन बुद्ध को आत्मसात किया अशोक ने। तथागत बुद्ध के निर्वाण के बाद उनकी अस्थियों पर अधिकार को लेकर 16 महाजनपदों के राजाओं में युद्ध की स्थिति पैदा हो गई। आनंद की सूझबूझ से यह टकराव टला और 18 स्थानों पर बुद्ध के अस्थि कलशों पर स्तूप बने, लेकिन 18 स्तूपों से 84 हजार स्तूपों का भारत सहित ईरान में निर्माण करवा कर उनमें तथागत की अस्थियों को विराजमान करने का श्रेय अशोक को जाता है।

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अशोक अब चंड अशोक नहीं रहा। अशोकावदान के अनुसार, बौद्ध भिक्षु उपगुप्त से दीक्षित अशोक अब अहिंसा का पुजारी हो चुका था। वह मगध से वैशाली होते हुए सारनाथ आता है। यह वही सारनाथ या मृगदाव है, जहां ज्ञान प्राप्ति के बाद भगवान बुद्ध ने अपना पहला धर्मोपदेश उन पांच साथियों को दिया, जो उनके साथ तपस्या करते थे।  

अशोक ने न केवल यहां धर्मराजिका स्तूप का, बल्कि कई बौद्ध विहारों का भी निर्माण करवाया। सारनाथ वही स्थल है, जहां मौर्य सम्राट अशोक ने सिंह शीर्ष स्तंभ स्थापित कर बौद्ध धर्म को चिरस्थायी रूप दिया।  

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सारनाथ आज भी उतना ही प्रसांगिक है जितना अशोक के समय या उसके बाद के राजवंशों के समय में हुआ करता था। बेशक काल के अंतराल में सारनाथ में बने बौद्ध विहार, स्तूप और मूर्तियों पर एक तरह से वक्त का पर्दा पड़ गया था, लेकिन धूल-धूसरित इस पर्दे के हटते ही सारनाथ का वैभव दैदिप्यमान है।

यहां न केवल धर्मराजिका स्तूप के अवशेष दिखते हैं, वरन धमेक स्तूप, बौद्ध विहारों के खंडहर और चार सिंहों वाले अशोक स्तंभ बुद्ध की विरासत को समेटे आज भी ‘बुद्धम शरणम् गच्छामि, धम्मम् शरणम् गच्छामि’ का संदेश दे रहे हैं।

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