Hari kishan sarhadi punyatithi: आज के दिन शहीद हुए थे 22 वर्ष के हरिकिशन सरहदी, पढ़ें उनकी जीवन कथा

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 09 Jun, 2023 07:53 AM

hari kishan sarhadi punyatithi

आजादी के संघर्ष के इस महायज्ञ में पंजाब के अनेक क्रांतिकारियों में से एक थे हरिकिशन सरहदी, जिन्होंने अंग्रेजों द्वारा क्रान्तिकारियों

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Hari kishan sarhadi punyatithi 2023: आजादी के संघर्ष के इस महायज्ञ में पंजाब के अनेक क्रांतिकारियों में से एक थे हरिकिशन सरहदी, जिन्होंने अंग्रेजों द्वारा क्रान्तिकारियों पर अत्याचारों के विरोध में पंजाब के हैवान गवर्नर ज्योफ्रे डी मोंटमोरेंसी का वध करने का निश्चय किया। इसके लिए 9 जून, 1931 को मात्र 22 वर्ष की उम्र में लाहौर की मियांवाली जेल में इन्होंने हंसते हुए फांसी के फंदे को चूमा। 

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इनका जन्म 2 जनवरी, 1908 को सीमा प्रान्त के मर्दान जनपद के गल्ला ढेर नामक स्थान (वर्तमान खैबर पख्तूनख्वा, पाकिस्तान) पर पिता गुरुदास मल के पुत्र रूप में मां मथुरा देवी की कोख से हुआ। इन्होंने बचपन से ही अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था तथा 1925 के काकोरी कांड से प्रभावित होकर ‘नौजवान भारत सभा’ के सदस्य बन गए। 

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दिसंबर 1930 में क्रांतिकारियों ने पंजाब के गवर्नर ज्योफ्रे डी मोंटमोरेंसी को मारने का प्लान बनाया। हरिकिशन भी इस ग्रुप से जुड़े हुए थे। 23 दिसंबर, 1930 को पंजाब यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में इस हत्या को अंजाम देने का निर्णय हुआ, जिसका जिम्मा इन्हें मिला। दीक्षांत समारोह की अध्यक्षता गवर्नर ज्योफ्रे डी मोंटमोरेंसी को करनी थी। पूरी तैयारी के साथ हरिकिशन भी सूट-बूट पहन कर दीक्षांत भवन में उपस्थित थे। 

समारोह समाप्त होते ही लोग निकलने लगे तो हरिकिशन ने एक कुर्सी पर खड़े हो कर गोली चला दी, एक गोली गवर्नर की बांह और दूसरी पीठ को छीलती हुई निकल गई। इसके बाद हरिकिशन सभा भवन से निकल कर पोर्च में आ गए। पुलिस दारोगा चानन सिंह पीछे से लपका और वह हरिकिशन का शिकार बन गया। एक और दारोगा बुद्ध सिंह वधावन जख्मी होकर गिर पड़ा। हरिकिशन अपना रिवाल्वर भरने लगा, परन्तु इसी दौरान पुलिस ने उन्हें धर दबोचा। इसके बाद हरिकिशन को लाहौर जेल ले जाया गया जहां इन्हें बेहद यातनाएं दी गईं। पुलिस ने उन्हें जनवरी के महीने में 14 दिन नंगा बर्फ पर लिटाए रखा। 

लाहौर के सैशन जज ने 26 जनवरी, 1931 को हरिकिशन को मृत्यु दंड सुनाया। हाई कोर्ट ने भी फैसले पर मोहर लगाई। जेल में इनकी दादी ने आकर कहा- हौसले के साथ फांसी पर चढ़ना। हरिकिशन ने जवाब दिया- फिक्र मत करो दादी, शेरनी का पोता हूं। पिता ने जेल में तकलीफ पूछने की जगह पश्तो भाषा में सवाल दागा-निशाना कैसे चूका ? 

उत्तर मिला- मैं गवर्नर के आसपास के लोगों को नहीं मारना चाहता था, इसीलिए कुर्सी पर खड़े होकर गोली चलाई थी, परन्तु कुर्सी हिल रही थी, इसलिए निशाना चूक गया। 

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9 जून, 1931 को प्रात: 6 बजे लाहौर की मियांवाली जेल में इन्कलाब जिंदाबाद के नारों की गूंज के बीच इस वीर को फांसी पर चढ़ा दिया गया। इनकी अंतिम इच्छा थी कि यदि मेरा मृत शरीर परिवार वालों को दिया जाए तो अंतिम संस्कार उसी जगह किया जाए जहां शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का संस्कार हुआ था। मेरी अस्थियां सतलुज में उसी स्थान पर प्रवाहित की जाएं, जहां उनकी प्रवाहित की गईं। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने हरिकिशन का पार्थिव शरीर उनके परिवार को नहीं सौंपा और जेल में ही जला दिया।

हरिकिशन के पिता गुरुदास मल को भी गिरफ्तार कर लिया गया। कैदखाने में उन पर भारी जुल्म ढाए गए, पर उन्होंने अंग्रजों के सामने झुकने से इंकार कर दिया। आखिर बेटे की शहादत के कुछ दिन बाद कैदखाने में गुरुदास मल की भी मृत्यु हो गई। इनके छोटे भाई भगतराम तलवार ने 1941 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस को ब्रिटिश हुकूमत के सख्त पहरे के बीच से निकाल कर काबुल पहुंचने में मदद की थी। 

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