श्री राम का धर्म या भरत का प्रेम, किसकी हुई थी जीत? जानिए राजा जनक से जुड़ा ये प्रसंग

Edited By Jyoti,Updated: 06 Apr, 2020 12:16 PM

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रामायण हिंदू धर्म का एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के जीवन काल में होने वाली हर घटना का संपूर्ण वर्णन मिलता है।

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
रामायण हिंदू धर्म का एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के जीवन काल में होने वाली हर घटना का संपूर्ण वर्णन मिलता है। आज हम अपने आर्टिकल के माध्यम से आपको श्री राम के वनवास काल में हुई एक ऐसी घटना का उल्लेख करने वाले हैं जिसके बारे में बहुत से लोग आज भी अनजान होंगे। आप में से लगभग लोग जानते होंगे श्री राम को वनवास भेजने के लिए उनके परिवार में से कोई भी राजी नहीं था। बल्कि इस सब का कारण असल में राजा दशरथ की पत्नी कैकयी थी जिन्होंने वर के रूप में अपने पुत्र भरत के लिए राज्य तथा श्री राम के लिए 14 वर्ष का वनवास मांग लिया था। क्योंकि राजा दशरथ ने उन्हें वर दिया था कि वो जो भी मांगेगी वो उन्हें देंगे इसलिए न चाहते हुए भी उन्हें कैकयी की इस इच्छा को पूरा करने के लिए श्री राम को वनवास भेज दिया। 
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अब ये सारी जानकारी तो आप में से बहुत से लोग जानते ही होंगी मगर क्या आप जानते हैं लेकिन क्या आप यह जानते हैं श्री राम के वनवास जाने के कितने दिन बाद राजा दशरथ स्वर्ग लोक को प्राप्त हुए और ऐसा क्या हुआ कि भरत जी अपने पूरे परिवार सहित श्री रामचंद्र को वनवास से वापस लाने के लिए निकल पड़े। दोनों भाईयों में एक-दूसरे के लिए हुई लड़ाई में आखिर किसकी जीत हुई, उनकी जीत निश्चय करने वाले कौन थे। 

अगर आप भी इस जानकारी से अभी तक अनजान है तो चलिए हम आपको बताते हैं इसका पूरा प्रसंग जिसमें न केवल महात्मा भरत जी का अपने भ्राता श्री राम के प्रति स्नेह प्रकट होगा बल्कि इसके द्वारा आप समझ पाएंगे की आख़िर क्यों मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने कि कई माता द्वारा दिए वनवास काल को उन्हीं के द्वारा वापस लेने के बाद भी पूरा करने का फैसला किया।

दरअसल शास्त्रों में इस बात का उल्लेख मिलता है जिस समय श्री राम को वनवास दिया गया उस समय कैकयी के पुत्र भरत और देवी सुमित्रा के पुत्र शत्रुघ्न कैकयी देश में थे जिस कारण उन्हें श्री राम के वनवास जाने के बारे में किसी तरह की कोई सूचना नहीं थी परंतु जब राजा दशरथ अपने पुत्र श्री राम के वियोग में स्वर्ग लोक को प्राप्त हो गए और उनके अंतिम संस्कार के लिए श्री राम और लक्ष्मण उपस्थित नहीं थे तब इस संस्कार को पूरा करने के लिए भरत और शत्रुघ्न दोनों राजकुमारों को जल्दी अयोध्या आने का आदेश दिया गया जहां उन्हें आकर पता चला कि रानी कैकयी और मंथरा के कारण श्री राम को 14  वर्ष के वनवास पर जाना पड़ा।
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जिसके बाद उन्होंने अपनी माता कैकयी के साथ अपना हर रिश्ता तोड़ दिया, इतना ही नहीं राजपाट लेने से साफ़ इंकार कर दिया। इस बात से आप समझ सकते हैं कि भरत श्री राम से कितना प्रेम करते थे. मगर इनके प्रेम की सीमा की असली उदाहरण तो तब मिली जब महात्मा राजा भरत श्री राम को वनवास काल से वापिस ले आने के लिए चित्रकूट तक चले गए। 

जी हां, बहुत कम लोग इस बारे में जानते हैं कि भरत जी ने राज पाट तो त्यागा ही बल्कि ये निश्चय कर लिया था कि वो अपने भ्राता श्री राम को वापिस लाएंगे। यही सोच कर वो अपने अपार सेना, गुरु वशिष्ठ, महा मंत्री सुमन्त्र, शत्रुघ्न तथा तीनों माताओं को साथ ले श्री राम को वापिस लेने निकल पड़े। जहां रास्ते में उन्होंने निषादराज से भेंट कर उन्हें भी अपने साथ चलने का आग्रह किया। 

बताया जाता है जब भरत श्री राम के पास पहुंचे तो उनसे क्षमा याचना करने हुए अपने साथ जाने को आग्रह करने लगे। शास्त्रों के अनुसार इस बात पर काफ़ी समय चर्चा हुई मगर श्री राम नहीं माने। जिसके जानकी पिता राजा जनक अपनी पत्नी संग वहां पधारे और भरत जी को प्रेम की असली परिभाषा बताई। उन्होंने उन्हीं विजयी बताते हुए कहा कि महात्मा भरत आपके प्रेम के आगे कोई जीत नहीं सकता आपके प्रेम की जीत हुई मगर एक सच्चा प्रेमी वही है जो निस्वार्थ भाव से प्रेम करे, उसी में खुश रहे जिसमें उसका प्रेमी खुश हो। श्री राम अपने धर्म की पालना करना चाहते हैं, अपनी पिता के वचनों की आज्ञा उनका धर्म कर्तव्य है। 

ये सभी बातें सुनकर भरत जी को इस बात का एहसास हुआ कि उन्हें उसी में खुश होना चाहिए जिसमें उनके भ्राता श्री राम प्रसन्न हैं। कहा जाता है अपने बड़े भाई श्री राम की आज्ञा का पालन करते हुए अयोध्या लौटने के लिए तैयार तो हो गए थे। परंतु उन्होंने राज सिंहासन पर बैठने से मना कर किया दिया था। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार उन्होंने 14 वर्षों तक श्री राम की ही तरह वनवास जैसा जीवन व्यतीत किया और राज सिंहासन पर उनकी चरण पादुका रखकर उनकी अनुपस्थिति में उनका सेवन बन राज महल से दूर एक कुटिया में रहकर राज्य का निरीक्षण व देख भाल की। 
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इस पूरे प्रसंग से हमें यही सीख मिलती है कि प्रेम चाहे किसी से भी करें, हमेशा निस्वार्थ भाव से करें। अगर आप उसमें स्वार्थ छोड़कर संपूर्ण प्रेम लगाएंगे तो आपका प्रेमी आपको अपने पास ही प्रतीत होगा। 
 
 

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