Srimad Bhagavad Gita: ‘सुख और दुख’ जीवन के हिस्से

Edited By Updated: 02 Dec, 2022 10:46 AM

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श्री कृष्ण कहते हैं कि ‘स्थित-प्रज्ञ’ वह है जो न तो सुख से उत्तेजित होता है और न ही दुख से विक्षुब्ध होता है एवं राग, भय और क्रोध से मुक्त होता है। यह उस श्लोक (2.38) का विस्तार है जहां श्री कृष्ण सुख-दुख,

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Srimad Bhagavad Gita: श्री कृष्ण कहते हैं कि ‘स्थित-प्रज्ञ’ वह है जो न तो सुख से उत्तेजित होता है और न ही दुख से विक्षुब्ध होता है एवं राग, भय और क्रोध से मुक्त होता है। यह उस श्लोक (2.38) का विस्तार है जहां श्री कृष्ण सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान रूप से मानने को कहते हैं। हम सभी सुख की तलाश करते हैं लेकिन दुख अनिवार्य रूप से हमारे जीवन में आता है। यह मछली के लिए चारे की तरह है, जहां चारे के पीछे कांटा छिपा होता है। 

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‘स्थित-प्रज्ञ’ वह है जो इन ध्रुवों को पार कर द्वंद्व से परे हो जाता है। यह एक जागरूकता है कि जब हम एक की तलाश करते हैं, तो दूसरा अनुसरण करने के लिए बाध्य होता है-भले ही एक अलग आकार में या समय बीतने के बाद।

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जब हम अपनी योजना के साथ सुख प्राप्त करते हैं, तो अहंकार प्रफुल्लित हो जाता है, जो उत्तेजना है, लेकिन जब यह दुख में बदल जाता है तो अहंकार आहत हो जाता है। यह विक्षुब्धता है, जो अहंकार के खेल के अलावा और कुछ नहीं है। ‘स्थित-प्रज्ञ’ इस बात को समझकर अहंकार ही छोड़ देता है।

जब श्री कृष्ण कहते हैं कि ‘स्थित-प्रज्ञ’ राग से मुक्त है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह वैराग्य की ओर बढ़ता है। वह इन दोनों से परे की अवस्था में रहता है। हमें इस बात को समझना मुश्किल होता है क्योंकि ध्रुवों से परे की स्थिति का वर्णन करने के लिए भाषाओं में शायद ही कोई शब्द है।

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‘स्थित-प्रज्ञ’ भय और क्रोध से मुक्त है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे उनका दमन करते हैं। वे अपने आप में कोई जगह नहीं छोड़ते कि भय और क्रोध प्रवेश करें और अस्थायी या स्थायी रूप से रहें।

भय और क्रोध, भविष्य या अतीत के वर्तमान पर प्रक्षेपण हैं। जब भगवान श्री कृष्ण यह कहते हैं कि स्थित-प्रज्ञ भय और क्रोध से मुक्त है, तो इसका अर्थ यह है कि वे वर्तमान में रहते हैं।

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