कैसे नीम का पेड़ बना परिवार का सदस्य

Edited By Punjab Kesari,Updated: 17 Jan, 2018 05:14 PM

how a neem tree become a family member

जब हमारा मकान बन रहा था तो एक नीम का पेड़ हमारे प्लाट के सामने अपनी बड़ी-बड़ी शाखाओं के साथ मौजूद था। पहले वह आया होगा, बाद में हम वहां गए। मुझे लगा वह मेरे जन्म से पहले वहां मौजूद रहा होगा।

जब हमारा मकान बन रहा था तो एक नीम का पेड़ हमारे प्लाट के सामने अपनी बड़ी-बड़ी शाखाओं के साथ मौजूद था। पहले वह आया होगा, बाद में हम वहां गए। मुझे लगा वह मेरे जन्म से पहले वहां मौजूद रहा होगा। बाद में मुझे पता लगा वह न केवल मेरे जन्म से पूर्व बल्कि मेरे भाई-बहन और मां-बाबू जी के जन्म से भी पहले वहां था। यह मैंने प्लॉट पर खोदी जाने वाली नींव में उसकी जड़ों को देखकर मजदूरों के बीच होने वाली बातों से जाना था। पेड़ की निज जगह में ही हमारा मकान बन रहा था। प्लॉट के आसपास आधा-पौना किलोमीटर क्षेत्र में कई पेड़ थे।


मकान बन कर तैयार हुआ तो ऐसा लगा वह नीम की जड़ों पर ही खड़ा है। बहुत से पक्षी पेड़ पर घौंसले बनाकर रहते थे। घर के आस-पास और दूर तक, उस वक्त तक कोई मकान नहीं बना था। हमारा मकान बन जाने के बाद उसे नई पहचान मिली। नीम के पेड़ वाला मकान। दूर-दूर तक इसे इसी नाम से जाना जाता था। घर ढूंढने में किसी को परेशानी नहीं हुई। पता बहुत साफ और स्पष्ट था। ‘फलां मोहल्ले में नीम के पेड़ के पास वाला मकान।’ बस! इतना काफी था। नए से नया व्यक्ति बिना किसी परेशानी और पूछताछ के चला आता था। दरवाजे की सांकल खडख़ड़ाने के पूर्व पेड़ पर घौंसला बनाकर रह रहे पक्षियों की चहचहाहट से ज्ञात हो जाता, कोई आया है। मां झट बोल पड़ती, ‘जा देख बेटा! सामने कोई है।’ हम दौड़ते हुए सामने के कमरे की तरफ जाते और किसी अपने को सच में खड़ा इंतजार करते पाते।

 

रोज सुबह सबको उठाने और मुंह धुलाने  से नीम के पेड़ की महत्वपूर्ण भूमिका होती। सुबह पहले मां उठती, बिल्कुल सुबह-सुबह। पिता जी बाद में। वह उसकी कोमल डाल तोड़ लाते। सबको एक-एक दातुन पकड़ा देते। मेरा मुंह बहुत कसैला हो जाता, पर पता नहीं कब आदत पड़ गई। अब उसके बिना सुबह नहीं होती। पिता जी कहीं बाहर गए होते तो सुबह सबसे पहले उठकर मैं डाल तोड़ लाता। इस तरह हमारी सुबह नीम के साथ होती। हमारा संयुक्त परिवार था। पिता की आय इतनी नहीं थी कि वह मकान बना सकें। वह अकेले कमाने वाले, बाकी सब खाने वाले थे। इसके बावजूद उन्होंने जोड़-तोड़ कर मकान बना लिया। किराए के घर में नीचे मुंडी डालकर रहने की पीड़ा से वह वर्षों गुजर चुके थे।

 

मकान न बहुत बड़ा था, न छोटा। बस! तीन कमरों के साथ जुड़ी एक रसोई थी। सभी कमरों का नामकरण हो चुका था। पहला, सामने वाला कमरा कहलाया। इसमें नीम के पेड़ की छांव दरवाजे-खिड़की से अंदर तक आ जाती थी। इस कमरे में कोई हो या न हो, नीम का पेड़ अवश्य होता। इससे लगा बीच वाला कमरा था। वह घर का केंद्र बिंदु था। यह बीच वाला कमरा ही कहलाया। सत्यनारायण भगवान, सोलह सोमवार, संतान सप्तमी और संतोषी माता की कथा हमने इसी कमरे में बैठकर सुनी थी।


घर में जब कोई संस्कार या पूजापाठ होती, पुरुष सामने वाले कमरे में बैठ जाते। महिलाएं व बच्चे बीच वाले कमरे में। जगह कम पड़ जाने पर बीच वाले कमरे से सीधे और बाईं ओर जुड़े रेडियो  वाले कमरे में। उन दिनों गांव में कुछ घरों में ही रेडियो थे। रेडियो रखने और सुनने के लिए लाइसैंस बनवाना पड़ता था। हर छह माह में इसकी फीस नजदीक गांव के पोस्ट आफिस से घटती थी। यह पिताजी के सोने वाले कमरे की दीवार पर ठुके ऊंचे रैक पर रखा, बजता था। बच्चों की पहुंच से दूर। यह कमरा रेडियो वाला कमरा हुआ। सबसे आखिरी में छोटी-सी रसोई थी।


हमारा मकान नगर के सुनसान इलाके में था। रात में पांच-सात कुत्ते नीम के पेड़ की शरण में निश्चिंत होकर सोते थे। मां सुबह उन्हें बचा-खुचा भोजन दे देती थी। अपनी रसोई से पहली रोटी गाय की और आखिरी कुत्ते की जैसी सीख वह नानी के घर से साथ लाई थी।

 

सुनसान इलाका होने के कारण किसी भी अप्रिय स्थिति में कुत्ते चौकन्ने हो उठते। जाने-अनजाने उनका जुड़ाव हमारे घर के साथ हो गया था। नीम के पेड़ पर घौंसला बनाकर रह रहे पक्षियों के साथ भी हमारी दिनचर्या जुड़ती जा रही थी। संध्या को जब उनका झुंड अपने घौंसलों में लौटता तो मां गोधूलि बेला का दीपक सुलगा देतीं। घर में प्रवेश करने से पूर्व सिर उठाकर नीम के पेड़ की तरफ देखतीं, भरपूर उसांस लेती मानो पूरे पेड़ की प्राण वायु अपने अंदर समाहित कर लेना चाहती हों। पेड़ कुछ भी नहीं बचाता। मां जितना चाहतीं, उन्हें मिल जाता। बावजूद इसके उसके पास देने की और दोगुना-तिगुना शेष रह जाता।


पिता, जिन्हें घर में सब बाबूजी कहते ठीक उसी समय साइकिल से घर लौटते दिखते। उनके लौटने की सूचना पहले नीम के पेड़ को मिलती, फिर हमें। हम घर पर मां को बताते। पिता जब घर के आंगन में अपनी साइकिल स्टैंड पर लगाते हम उनके आस-पास खड़े हो जाते। वे हम सब भाई-बहनों के सिर पर हाथ फेरते। रेडियो वाले कमरे में जाते। हाथ-मुंह धोते। उनके तैयार होकर आने के पहले ही हम सब अपना-अपना बस्ता खोल कर पढऩे बैठ जाते। हमें पढ़ता हुआ देख उनके चेहरे पर एक गहरा संतोष होता।


हम उनके आदर्शों पर खरा उतरने के लिए जी-जान लगाकर पढ़ाई करते। अवकाश के दिनों में नीम के पेड़ के आस पास खेलते। बहुत कोशिश करने के बाद भी मैं कभी नीम की सबसे ऊंची डाल पर नहीं चढ़ पाया। मुझ से छोटा भाई बड़ी ही निर्भयता से झटपट चढ़ जाता था। हम नीम की छांव में पले-बढ़े। हमारी पढ़ाई से नीम के पेड़ का महत्वपूर्ण योगदान रहा। हायर सैकंडरी स्कूल तक हमें कभी नई किताब नहीं मिली। आधी कीमत में खरीदी गई सैकंड, थर्ड हैंड किताबों के पन्नों को नीम के पेड़ की गोंद पूरी दृढ़ता से सांधे रखती। हमें अपनी किताबों में नीम के पेड़ के उपस्थित होने का सदा आभास होता रहता था।


घर के कोने-कोने और जीवन के हर पल में रहने वाला नीम का पेड़ हमारे घर-परिवार का ही एक हिस्सा है यह हमने उस दिन जाना जिस दिन दादी इहलोक छोड़ कर परलोक सिधार गई थी। आस-पड़ोस वाले कह रहे थे, ‘‘नीम के पेड़ वाली दादी नहीं रही।’’

 

कुछ ने कहा, ‘‘नीम के पेड़ वाली आंटी की सास नहीं रही मेरा दोस्त अपने दोस्तों को बता रहा था। वह जो नीम के पेड़ वाला मेरा दोस्त है न उसके घर एक बूढ़ी अम्मा खत्म हो गई।’’

 

पिता के मित्र अपने अन्य मित्रों से कह रहे थे, ‘‘नीम के पेड़ वाले व्यक्ति की माता जी नहीं रहीं।’’ उस दिन हमने महसूस किया नीम एक पेड़ नहीं हमारे घर का सबसे बड़ा और सम्मानित सदस्य है। वही कालजयी है और हमारी असल पहचान भी।

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