Edited By Niyati Bhandari,Updated: 10 Aug, 2023 10:34 AM
एक भूखी लोमड़ी ने ऊपर लटके हुए अंगूरों तक पहुंचने की कोशिश की, असफल रही और सोचने लगी कि अंगूर खट्टे हैं। यह कहानी निराशा, तृप्ति और खुशी से निपटने
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Srimad Bhagavad Gita: एक भूखी लोमड़ी ने ऊपर लटके हुए अंगूरों तक पहुंचने की कोशिश की, असफल रही और सोचने लगी कि अंगूर खट्टे हैं। यह कहानी निराशा, तृप्ति और खुशी से निपटने के मुद्दे पर कई विचार प्रस्तुत करती है। समकालीन मनोविज्ञान मानव मस्तिष्क के कार्यों में से एक के रूप में ‘सुख के संश्लेषण’ के बारे में बात करता है जो हमें कठिन परिस्थितियों से बाहर निकलने में मदद करता है। लोमड़ी ने ठीक वैसा ही किया और अपने आप को संतुष्ट कर लिया कि अंगूर खट्टे थे और आगे बढ़ गई।
तृप्ति के सन्दर्भ में, श्री कृष्ण ‘सुख के संश्लेषण’ से परे जाते हैं और कहते हैं कि, ‘‘जो पुरुष समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और नित्य तृप्त है, वह कर्मों में भली-भांति बरतता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता।
‘स्वयं के साथ तृप्त’ गीता के मूल उपदेश में से एक है और कई अवसरों पर श्री कृष्ण, अर्जुन को आत्मवान या आत्म-तृप्त होने की सलाह देते हैं, जो अनिवार्य रूप से स्वयं से तृप्त है। आत्मवान किसी भी परिस्थिति में संतोष की सुगंध फैलाता है। इससे पहले श्री कृष्ण ने कर्म और अकर्म के बारे में बात की जहां उन्होंने उल्लेख किया कि बुद्धिमान भी इन जटिल मुद्दों को संभालने में भ्रमित हो जाते हैं। वर्तमान श्लोक में, वह कर्म में अकर्म की झलक देते हैं, जब वह कहते हैं कि एक नित्य-तृप्त कुछ भी नहीं करता है। हालांकि, वह कर्म में लगा हुआ है।
हमारी मौलिक इच्छा यह है कि आज हम जो हैं, उससे अलग होना चाहते हैं। दिलचस्प बात यह है कि उस इच्छा के अनुसार कुछ बनने के बाद मनुष्य कुछ और बनना चाहता है। सुख और संपत्ति का पीछा करने के मामले में भी कभी न खत्म होने वाला यही सिलसिला जारी रहता है जहां लक्ष्य लगातार बदलते रहते हैं। जब यह अहसास होता है कि सुख और संपत्ति का पीछा मृगतृष्णा का पीछा करने के अलावा और कुछ नहीं है और यह आदत हमें बीमार और थका देती है, हम धीरे-धीरे कर्मफल की इच्छा को छोड़कर नित्य तृप्त बन जाते हैं- उस बच्चे की तरह है जो केवल खुश रहता है और बिना किसी कारण के हंसता है।