Edited By Radhika,Updated: 23 Dec, 2025 04:16 PM
उत्तर भारत के राज्यों में इन दिनों अरावली पहाड़ों को लेकर महायुद्ध छिड़ा हुआ है। यह विवाद राजस्थान की वादियों से लेकर दिल्ली की सीमाओं तक फैल चुका है।
Aravalli Controversy: उत्तर भारत के राज्यों में इन दिनों अरावली पहाड़ों को लेकर महायुद्ध छिड़ा हुआ है। यह विवाद राजस्थान की वादियों से लेकर दिल्ली की सीमाओं तक फैल चुका है। इसके पीछे का कारण अरावली की एक नई 'परिभाषा'। सुप्रीम कोर्ट द्वारा केंद्र सरकार की सिफारिशों के आधार पर अरावली की जो नई व्याख्या स्वीकार की गई है, उसने environmentalists, स्थानीय लोगों और विपक्षी दलों को सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया है। डिटेल में जानते हैं कि क्या है ये पूरा मामला और क्या हैं इसके विरोध के कारण
क्या है पूरा विवाद?
अरावली दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है। यह केवल पत्थर के ढेर नहीं, बल्कि उत्तर भारत का 'Ecological Barrier' (पारिस्थितिक कवच) है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पहाड़ियों को परिभाषित करने के लिए नए मानक तय किए हैं। जिसके अनुसार-
1. केवल उसी हिस्से को 'अरावली पहाड़ी' माना जाएगा जो आसपास की जमीन से कम से कम 100 मीटर (328 फीट) ऊंचा हो।
2. दो पहाड़ियां, जो 500 मीटर के दायरे में हों और उनके बीच समतल जमीन हो, उन्हें 'श्रृंखला' माना जाएगा।

क्या है विरोध का मुख्य कारण?
प्रदर्शनकारियों का तर्क है कि अरावली का महत्व उसकी ऊंचाई से नहीं, बल्कि उसकी उपस्थिति से है। 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली हजारों ऐसी छोटी पहाड़ियां और टीले हैं जो वर्तमान में घने जंगलों और झाड़ियों से ढके हुए हैं।
- खनन का खतरा: नई परिभाषा के बाद जो पहाड़ियां 100 मीटर से नीची हैं, उन्हें तकनीकी रूप से 'पहाड़' नहीं माना जाएगा। इससे वहां खनन और निर्माण कार्यों के लिए कानूनी रास्ता साफ हो सकता है।
- रेगिस्तान का विस्तार: अरावली थार मरुस्थल को दिल्ली और हरियाणा की ओर बढ़ने से रोकती है। यदि छोटी पहाड़ियां हटा दी गईं, तो धूल भरी आंधियां और मरुस्थलीकरण का खतरा बढ़ जाएगा।
- जल संकट: ये पहाड़ियां Groundwater रिचार्ज करने का मुख्य स्रोत हैं। इन्हें नुकसान पहुंचने का सीधा असर गुड़गांव, फरीदाबाद और दिल्ली के वाटर टेबल पर पड़ेगा।
गुड़गांव से उदयपुर तक गूंज उठी मुद्दे की गूंज
बीते हफ्ते गुड़गांव और उदयपुर जैसे शहरों में बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन देखे गए। 'पीपल फॉर अरावलीज' जैसे संगठनों का कहना है कि सरकार को पहाड़ों को वैज्ञानिक और जलवायु संबंधी महत्व के आधार पर परिभाषित करना चाहिए, न कि किसी मनमाने पैमाने से। पर्यावरण कार्यकर्ता विक्रांत टोंगड़ के अनुसार, "पहाड़ अपनी सेवाओं (Ecosystem Services) से पहचाने जाते हैं, ऊंचाई से नहीं।"

राजनीतिक गलियारों में भी उठा मुद्दा
राजनीतिक गलियारों में भी इसकी गूंज है। समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव और राजस्थान कांग्रेस के नेताओं ने इसे दिल्ली और उत्तर भारत के अस्तित्व पर हमला बताया है।
सरकार का पक्ष
दूसरी ओर केंद्र सरकार और पर्यावरण मंत्रालय इन चिंताओं को खारिज कर रहे हैं। सरकार का कहना है कि इस नई परिभाषा का उद्देश्य नियमों को स्पष्ट करना और सभी राज्यों (राजस्थान, हरियाणा, गुजरात, दिल्ली) में एकरूपता लाना है। यह कहना गलत है कि 100 मीटर से नीचे की जमीन पर तुरंत खनन शुरू हो जाएगा। संरक्षित वन और 'इको-सेंसिटिव जोन' में किसी भी गतिविधि पर पूर्ण प्रतिबंध रहेगा। पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव के अनुसार, पूरी श्रृंखला का केवल 2% हिस्सा ही संभावित खनन के दायरे में आ सकता है, वह भी कड़ी जांच के बाद।
अदालत में चुनौती की तैयारी कर रहे हैं प्रदर्शनकारी
भले ही सरकार इसे नियमों का सरलीकरण बता रही हो, लेकिन जमीनी स्तर पर अविश्वास की खाई चौड़ी है। प्रदर्शनकारी अब इस नई परिभाषा को अदालत में चुनौती देने की तैयारी कर रहे हैं। सवाल यह है कि क्या विकास और निर्माण की भूख में हम उन प्राचीन रक्षकों को खो देंगे जिन्होंने करोड़ों वर्षों से इस धरती को सुरक्षित रखा है।