Krishan Chander birthday: कृश्न चंदर का जन्मदिवस आज, जिनके हाथों में था उर्दू की बेहतरीन शायरी का सारा हुस्न

Edited By Prachi Sharma,Updated: 23 Nov, 2023 08:28 AM

krishan chander

कृश्न चंदर से मैं आखिरी बार बंबई अस्पताल में मिला। मैं वहां पांच बजे शाम को गया था। अंदर जाने की मनाही थी, फिर भी मैं डॉक्टर की

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Krishan Chander birthday: कृश्न चंदर से मैं आखिरी बार बंबई अस्पताल में मिला। मैं वहां पांच बजे शाम को गया था। अंदर जाने की मनाही थी, फिर भी मैं डॉक्टर की नजर बचाकर एक मिनट के लिए कमरे में पहुंच गया। वह पलंग पर तकियों के सहारा लिए लेटे थे। कितनी नलकियां और बिजली की तारें, उनके जिस्म में लगी हुई थीं। टखने की नस के जरिए ग्लूकोज दिया जा रहा था। नाक में ऑक्सीजन की नली लगी हुई थी। छाती पर बाईं ओर दिल की धड़कन को संभालने के लिए उनकी खाल के नीचे पेसमेकर लगा हुआ था। अर्थात हृदय रोगी को जितनी मेडिकल सहुलियतें मुमकिन हैं, दी जा रही थीं। दिल बखूबी काम कर रहा था।

फिर भी मुझको कृश्न चंदर के चेहरे पर मायूसी तो नहीं कहूंगा लेकिन थकान के संकेत नजर आए। पहले जब मैं जाता था, तो वह मेरा स्वागत अपनी खूबसूरत और मीठी मुस्कराहट से करते थे। उनकी आंखें चमक उठती थीं लेकिन उस दिन एक हल्की-सी, कड़वी-सी मुस्कराहट उनके चेहरे पर एक पल के लिए उभरी और फिर धीरे-धीरे धुंधला गई। आंखों की गहराई में मैंने एक ऐसी बुझती हुई चमक देखी, जो पहले कभी दिखाई न दी थी। मैंने कल न आने की माफी चाही।

‘‘होली का हंगामा इतना था कि हिम्मत न पड़ी घर से निकलने की।’’

धीरे से उन्होंने कहा, ‘‘कल तो तुम आए थे। साथ में मिसेज इंदिरा बहन भी थीं।’’

मैंने कहा, ‘‘वो परसों थीं। कल हम लोग न आ सके।’’

‘‘नहीं, कल तुम लोग आए थे।’’

मैंने सोचा, इनका दिमाग कल और परसों का फर्क भूल गया है। फिर मैंने उस पर बहस नहीं की।

‘‘अब्बास।’’ फिर उन्होंने आहिस्ता से कहा, ‘‘हम तो अब चले।’’

मैंने बनावटी उत्साह से कहा, ‘‘नहीं जी, कैसे जा सकते हो। अभी तो तुम्हें बहुत काम करना है। हम तुम्हें जाने ही नहीं देंगे।’’

फिर मैंने कृश्न चंदर का हाथ, अपने हाथ में लिया। वह हाथ, जिसने कलम से उर्दू साहित्य रूपी बागीचे में कैसी-कैसी कलियां और फूल खिलाए थे। वह हाथ, जिसने ‘अन्नदाता’ और ‘बालकनी’ जैसे ट्रेडमार्क अफसाने लिखे थे। जिनकी रूह मार्क्सवादी थी, मगर जिनमें उर्दू की बेहतरीन शायरी का सारा हुस्न था। आज वह हाथ मेरे हाथ में था। जी चाहता था, उसको न छोड़ूं। अपने हाथ में दबोचे रखूं। उसे अपने हाथों की गर्मी पहुंचा दूं। अपनी जिंदगी उस हाथ को दे दूं, ताकि अगर कृश्न चंदर मर भी जाए तो किसी तरह यह हाथ जिंदा रहे और लिखता रहे। और उस रात ही कृश्न को बेचैनी शुरू हुई और रात ही को बंबई अस्पताल में दाखिल कर दिया गया।

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जिस कमरे में उसने पिछले हार्ट अटैक में लगभग एक महीना काटा था, इत्तेफाक से वही कमरा खाली मिल गया। हमें नहीं मालूम कि मौत वहां उसका इंतजार कर रही थी।

मैंने हाथ को दबाया। दूसरी ओर से भी हल्की-सी कोशिश हुई, मेरा हाथ दबाने की लेकिन अब उस हाथ में ताकत खत्म हो रही थी।

 क्या, परवाह है ? मैंने सोचा, इस हाथ को फावड़ा थोड़े ही चलाना है, सिर्फ लिखना ही तो है। इतनी ताकत भी काफी है।

तभी नर्स ने मुझे इशारा किया कि अब, तुम जाओ। मैंने अनिच्छा से कृश्न चंदर का हाथ छोड़ा। अपने हाथ के अंगूठे को ऊपर करके दो-तीन बार जीत का निशान बनाया कि हमने अभी हार नहीं मानी है। उसने भी अंगूठा ऊपर करके, बहुत ही हल्के से हिलाया। मैंने समझा, वह कह रहा है कि मैंने हार नहीं मानी है। मैं जीतने की कोशिश करूंगा।

यह हमारा बहुत पुराना निशान था। हर बार, जब कृश्न को हार्ट अटैक हुआ, मैं चलते वक्त यही इशारा करता था और कृश्न भी यही इशारा करता था मगर आज उसके इशारे में एक-दूसरा मतलब छुपा हुआ था। जैसे वह अंगूठे से इशारा कर रहा था कि ‘‘हम तो अब ऊपर चले।’’ मगर मैंने अपने दिल को जान-बूझ कर धोखा दिया। नहीं जी, अपना यार कृश्न बहुत हिम्मत वाला है, वह इतनी आसानी से नहीं मरने वाला।

सीढ़ियां उतर रहा था कि जोए अंसारी ऊपर जाते हुए मिले। उन्होंने पूछा, ‘‘कृश्न चंदर कैसे हैं?’’

मैंने सफेद झूठ बोला, ‘‘पहले से बहुत बेहतर हैं।’’

वह ऊपर चले गए, मैं नीचे चला गया। मेरा दिल और नीचे जा रहा था। वह आशा के साथ जा रहे थे। मैं आशा के दीप बुझा चुका था।

मैं कृश्न चंदर के बेटे से (जो बाहर बैठा था) कह कर आया था, ‘‘कोई चिंता की बात हो, तो फोन कर देना।’’

रात भर उस फोन के इंतजार में नींद नहीं आई। मैं करवटें बदलता रहा। मेरी कल्पना के पर्दे पर कृश्न की झलकियां उभरती-मिटती रहीं। शरबती आंखों वाला कृश्न चंदर उस वक्त दुबला-पतला नौजवान होता था। दिल्ली के रेडियो स्टेशन में, जहां हमारी पहली मुलाकात हुई थी, मंटो भी वहां था। फिर हम बंबई में मिले। जब वह पूना में ‘शालीमार’ में काम कर रहा था। वहां साहित्यकारों का जमघट था। जोश, अख्तर-उल-ईमान, इंदर राज आनंद, सागर निजामी, रामानंद सागर,  ‘अंजुमन तरक्की पसंद मुसन्निफीन’ (प्रगतिशील लेखकों) की मीटिंग्स उन दिनों सज्जाद जहीर के फ्लैट में बालकेश्वर रोड पर होती थीं। बंगाल में उन दिनों अकाल पड़ रहा था। एक दिन खबर आई कि कृश्न चंदर पूना से आए हुए हैं और इतवार को ‘अंजुमन तरक्की पसंद मुसन्निफीन’ में अपनी नई कहानी सुनाएंगे। कहानी तो याद नहीं, कौन सी थी, ‘बालकनी’ या ‘अन्नदाता’, मगर यह अब तक याद है कि नीले, चिकने मोटे कागज के पैड पर लिखी हुई थी। जैसे कागजों पर कभी हम कालेज में प्रेम-पत्र लिखा करते थे। (यह अदा कृश्न चंदर की आखिरी दिनों तक रही। अब भी उसके कमरे में चिकने, नीले कागज के कितने ही पैड खाली पड़े उसकी कलम का इंतजार कर रहे हैं।)

 मैंने उस कागज से डर कर, कृश्न से कहा,‘‘तुम कहानी क्या लिखते हो, एक प्रेम-पत्र लिखते हो !’’

मगर उस कलम का मैं कायल और आशिक हो गया। काश, मेरी कलम में भी यह रवानी होती। बार-बार मैं, यह सोचता। फिर मुझे कृश्न से एक साथ ही  मोहब्बत और जलन हो गई। जहां कहीं उसका कोई अफसाना नजर आता, मैं उसे बार-बार पढ़ता। बिल्कुल ऐसे, जैसे कभी किसी के नीले कागज वाले खत पढ़ा करता था। साथ में उसके स्टाइल पर रश्क आता, बल्कि जलन होती और जब कोई अफसाना लिखने बैठता, तो यह कोशिश होती कि मेरे अफसाने में भी कृश्न जैसी झलक आ जाए।

उसकी नक्ल तो मैंने आज तक नहीं की लेकिन यह ख्याल जरूर रहता कि कृश्न इस अफसाने को पढ़े और पसंद करे, तब बात बने। आजादी आने के बाद उसकी कलम में एक नई ताकत आ गई और उसने फसादात के बाद जो अफसाने और नॉवेल लिखे, ‘पांच रुपए की आजादी’, ‘फूल सुर्ख हैं’ और तेलंगाना आंदोलन पर ‘जब खेत जाग उठे’ आदि में स्वतंत्रता की कल्पना की जो इंकलाबी तस्वीर उसने खींची है, वह किसी और का काम नहीं। फिर वह फिल्म प्रोड्यूसर बन गया और मैं भी।

उसने ‘सराय के बाहर’ बनाया, जो ड्रामा तो बेहतरीन था, मगर अच्छी फिल्म नहीं बन सका। मैंने ‘धरती के लाल’ बनाया, जो फिल्म तो अच्छी थी, लेकिन पहले ही हफ्ते में फ्लॉप हो गई।

कृश्न चंदर की कहानियां रूस में और दूसरी सोवियत जुबानों में अनुवाद होकर बहुत लोकप्रिय हुई हैं। उसकी कहानियों की किताबें लाखों की संख्या में रूस और उसकी एशियाई रियासतों में प्रकाशित हुईं और वहां के लड़के-लड़कियां अगर फिल्में राजकपूर की पसंद करते थे तो उनका महबूब लेखक कृश्न चंदर था।

और अब अर्थी को श्मशान पहुंचा दिया गया है। एक जुलूस ने जिसमें एक सौ से ज्यादा लोग नहीं थे, ज्यादातर लेखक और अदीब। सब श्रद्धासुमन भेंट कर रहे थे।

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कोई कहता, ‘‘अदब का शहजादा चला गया।’’

कोई कहता, ‘‘वह उर्दू अदब का जवाहर लाल था।’’

मैंने कहा ‘‘वह न अदब का शहजादा था’’, न ‘‘अदब का जवाहरलाल’’, वह तो मेरा हमदम, मेरा दोस्त था। उसके मरने से मैं खुद मर गया हूं, अब और क्या कहूं?

‘‘देखो, कृश्न ये सब जमा हैं। सरदार जाफरी, भारती जी, कमलेश्वर, इंदर राज आनंद, रामानंद सागर, सी.एल. काविश, मजरूह, राजेंद्र सिंह बेदी। तुम्हारे दोस्त, तुम्हारे यार। तुम्हारे जानने वाले। तुम्हारे हम प्याला, हम निवाला और आज ये सब तुम्हें जलाने आए हैं।’’

 बकौल सरदार जाफरी, ‘‘एक शोले को शोलों के सुपुर्द करने आए हैं।’’

‘‘बोलो यार, कुछ तो बोलो।’’ कुछ नहीं तो हाथ का अंगूठा ऊपर करके कहो, ‘‘हम, तो अब चले ऊपर।’’

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